Sunday, March 22, 2009

दावतें और adaavate
जैन सोचकर देखिए कि पिछले वषोZ में मिले दावतों के निमंत्रणों को लेकर आप या आपका परिवार कितने उत्साह में आया है ? सच तो यह है कि अब दावत का निमंत्रण मन में एक तरह का तनाव पैदा कर देता है। याद कीजिए उन दिनों को जब गिद्व भोज अथाZत बफे सिस्टम की दावतें शुरू नही हुइZ थीं तब घर कितना भी छोटा हो पर दावतों वाले दिनों में मोहल्ले के अंतिम छोर तक घर का विस्तार हो जाता था। हर खाली पड़ी जमीन भटि्टयWा खोदने और इZधन रखने के काम आती थी। मिठाइZ बनाकर रख देने के लिए किसी के भी घर का कोइZ भी बड़ा कमरा खाली करा लिया जाता था। दावत की सारी कच्ची सामग्री स्वंय खरीदनी पड़ती थी तथा हलवाइZ द्वारा दिए गए तात्कालिक निदेZ’ाों का पालन करने के लिए एक जिम्मेदार आदमी उसके समीप ही बैठकर भट्टी के धुएं का सेवन करता रहता था। गंेहू पिसाने से लेकर मसाला बांटने व सब्जी छीलने, काटने तक का काम घर के लोग और शादी के लिए बुलवाए गए मेहमानों द्वारा ही किया जाता था। रात रात भर काम, मजाक और ठहाके चला करते थे। रि’तों की श्रेणियंा होती थी व घर की महिलाओं के पक्ष वाले लोगों से वि’ोष चुहल चलती थी। काम में भी आनंद का जन्म होता था। तब घरों के बाहर चबूतरे होते थे जो सामान्यतया बैठक और चौपाल का काम करते थे। जो जितना बड़ा आदमी होता था उसका चबूतरा भी उतना ही बड़ा होता था और कइZ मामलों में तो दिल का आकार भी बड़ा होता था। दावतें इन्ही चबूतरों पर हुआ करती थीं और पड़ोस के स्कूल से दरी- पटि्टयां मांगकर बिछाइZ जाती थी। खाने के लिए पला’ा के पत्तों की पत्तलंे परसी जाती थीं जिन्हें पानी के छींटे मारकर शुद्व किया जाता था।
रसेदार सब्जी, रायता और मिठाइZ के लिए दोने परोसे जाते थे। प्रत्येक पत्तल पर परसे जाने वाले दोनांे को देखकर ही लोग दावत में परसी जाने वाली सामग्री का अनुमान लगाने लगते थे। आम तौर पर कुछ लोग अपने साथ पानी पीने का गिलास या लोटा लेकर दावतें जीमने जाते थे। जो लोग साथ नही लाते थे उन्हें मिट्टी के कुल्हड़ो में पानी उपलब्ध कराया जाता था। इन कुल्हड़ों में पानी डालने पर एक अजब-सी-सूं सूं की आवाज और सौधी- सौधी गंध उठती थी। तेज मिचZ वाले रायते से पैदा होने वाली सनसनाहट के कारण उसका नाम सन्नायटा पड़ गया है। स्वाद और प्रभाव के कारण इसका नामकण दावतों में ही हुआ होगा। पूरी परोसे जाने से पहले सब्जियWा और मिठाइZयों परोसी जाती थी। सब्जी मेंं कद्दू व बैंगन- आलू का प्रचलन सामान्य था, अचार, पापड़, नमक- मिचZ भी परोसे जाते थे पर मिठाइयों की संख्या और विविधता ही मेजबान का गुणगान करने का आधार बनती थी। कइZ दावतों में रसगुल्ला और लड्डू की मनचाही बारंबारता से ही मेजबान की दरियादिली का मूल्यांकन किया जाता था। एक व्यक्ति क्रम’ा: एक आइटम परोसता था तथा प्रत्येक व्यक्ति को प्रत्येक आइटम परोसवाना अनिवायZ होता था जिससे कि परोसने वाले पर भूल करने का आरोप न लगे। भले ही वह व्यक्ति उसे न खाना चाह रहा हो, पर उसे वह लेना ही पड़ता था। इसी त्रुटि से बचने के लिए खाना तब ही शुरू करना पड़ता था जब पूरी पत्तल परोस दी जाती थी।
परिवार का कोइZ बुजुगZ जिम्मेदार व्यक्ति आकर पत्तलों पर देखता था तथा सारे आइटम आ चुकने की पुष्टि करने के बाद हाथ जोड़कर कहता था- लगन दो ठाकुर जी को भोग। इस हरी झंडी मिलने के बाद लोग खाना शुरू करते थे। निरंतर भोज्य सामग्री आने और प्रतीक्षा करते रहने के कारण भूख सामान्य से अधिक तीव्र हो जाया करती थी। परोसने वाले प्रत्येक पत्तल पर जाकर अतिरिक्त आग्रह के साथ परोसगारी करते थे व सामान्य तौर पर भूख से अधिक खाने को बाध्य कर देते थे। दावतों की प्रतीक्षा रहती थी, तैयारी होती थी और लंबे समय तक उनका जिक्र चलता था। अब यदि इन पुरानी दावातों की याद भी आ जाती है तो आज की दावतें तो अदावतों की तरह लगती है। ------ वीरेन्द्र जैन2@1 ’ाालीमार स्टलिZंग रायसेन रोडअप्सरा टाकीज के पास भोपाल म.प्र.फोन 9425674629  

7 comments:

AAKASH RAJ said...

बहुत अच्छे .......
हिंदी ब्लॉग जगत में आपका स्वागत है .........

दिल दुखता है... said...

आपका हिंदी ब्लॉग की दुनिया में आपका स्वागत करता हूँ... मैं हूँ.... ग्वालियरवाला. सबसे पहले हिंदुस्तानवाला.....

गोविंद गोयल, श्रीगंगानगर said...

giddha bhoj hota hai,wo rakha bhojan, khao to khao varna narayan narayan kaho

सागर नाहर said...

वीरेन्द्र साहब
आपने सचमुच के जीमने की याद दिलवा दी। मैं जब भी राजस्थान में अपने गाँव जाता हूँ, मौका मिलने पर "जीमने" अवश्य जाता हूँ।
हमारे यहां परोसगारी करने वाले को परोसगरी के साथ प्रत्येक जीमने वाले के हाथ से एक एक टुकड़ा मिठाई खानी पड़ती है, बड़ा मजेदार दृश्य होता है मुंह ठसाठस मिठाई से भर जाता है।
बड़ी मजेदार पोस्ट है आपकी, बचपन याद दिला गया।
धन्यवाद
Sagar Jain, Hyderabad
॥दस्तक॥
गीतों की महफिल
तकनीकी दस्तक

MAYUR said...

जीतेन्द्र जी हम तो किसी मंदिर में भोज में ज़रूर जाते हैं ,बैठ के खाते हैं


हिन्दी ब्लॉग परिवार में आपका स्वागत है ,अपनी लेखनी से हिन्दी में योगदान दें ।

किसी प्रकार की कोई सहायता जगत के लिए पूरे ब्लॉग जगत से निसंकोच प्रश्न करें ,

धन्यवाद
अपनी अपनी डगर

anurag said...

वाह ! जितना खूबसूरत आपका टॉपिक है , उससे भी कहीं खूबसूरत आपने लिखा है. स्वागत और बधाई.

Ashish Gupta said...

Sir Ji, aapne gaon ki pangat ki yaad dila di......

Thanks.....