Wednesday, July 15, 2009

एक ग़ज़लनुमा रचना

पुराने वक्त में ये हादसा कई बार होता था
अंधेरी रात में भी चाँद का दीदार होता था
तुम्हारे दूर जाने ने बदल कर 'बॉर' कर डाला
तुम्हारे साथ रहते जो कभी 'घर-बार' होता था
उसी के वास्ते सब हो रहा अब इस जमाने में
हमारे वास्ते जो देश का बाजार होता था
कहीं खबरें भी गुम मिल जायेंगीं इन इश्तहारों में
कभी जिनके लिए मशहूर ये अखबार होता था
निकल कर आ रहे हैं आदमी सब एक साँचे में
कभी हर एक का अपना अलग आकार होता था

4 comments:

mehek said...

कहीं खबरें भी गुम मिल जायेंगीं इन इश्तहारों में
कभी जिनके लिए मशहूर ये अखबार होता था
निकल कर आ रहे हैं आदमी सब एक साँचे में
कभी हर एक का अपना अलग आकार होता था
waah kya baat hai bahut sahi sunder.

श्यामल सुमन said...

कहीं खबरें भी गुम मिल जायेंगीं इन इश्तहारों में
कभी जिनके लिए मशहूर ये अखबार होता था

निकल कर आ रहे हैं आदमी सब एक साँचे में
कभी हर एक का अपना अलग आकार होता था

बहुत खूब कहा है आपने। सुन्दर भाव। लेकिन आपने इसे गजलनुम क्यों कहा? गजल कहने में भी हर्ज तो नहीं।

सादर
श्यामल सुमन
09955373288
www.manoramsuman.blogspot.com
shyamalsuman@gmail.com

ओम आर्य said...

bahut hi gaharaee hai aapki kawita ke panktiyon me .....bahut hi sundar

Unknown said...

गुजरे दोर की बात चली हैं तो , तू भी मान ले जैन
तुझे भी किसी अपने का इन्तजार होता था

"दिल से लिखा हैं आपने दिल को अछा लगा
कही न कही सबकी जिन्दगी से जुड़ा लगा
माफ़ करना जैन जी , अभी बच्चा हूँ
गर लिखा अश्यार आपको बुरा लगा "