व्यंग्यजल
वीरेन्द्र जैन
दशहरा है तो क्या कर दूँ, दिवाली है तो क्या कर दूँ
हमारी जेब जब खाली की खाली है तो क्या कर दूँ
तुम्हारे पास नेता के लिए अलफाज अच्छे हैं
हमारे पास बस अश्लील गाली है तो क्या कर दूँ
इसे समझाउँ तो वो लोग हत्थे से उखड़ते हैं
मुहल्ले का मुहल्ला जब बबाली है तो क्या कर दूँ
किये माथे लगा कर फैसले मंजूर पंचों के
मगर बहती वहीं पर आज नाली है तो क्या कर दूँ
हमारी जगह जिसने नौकरी पायी वो अव्वल था
उसी की पर सनद सम्पूर्ण जाली है तो क्या कर दूँ
बहुत दिन बाद मेरी ऑंख जिससे लड़ गयी यूँ ही
वही इस शहर के गुन्डे की साली है तो क्या कर दूँ
वीरेन्द्र जैन
दशहरा है तो क्या कर दूँ, दिवाली है तो क्या कर दूँ
हमारी जेब जब खाली की खाली है तो क्या कर दूँ
तुम्हारे पास नेता के लिए अलफाज अच्छे हैं
हमारे पास बस अश्लील गाली है तो क्या कर दूँ
इसे समझाउँ तो वो लोग हत्थे से उखड़ते हैं
मुहल्ले का मुहल्ला जब बबाली है तो क्या कर दूँ
किये माथे लगा कर फैसले मंजूर पंचों के
मगर बहती वहीं पर आज नाली है तो क्या कर दूँ
हमारी जगह जिसने नौकरी पायी वो अव्वल था
उसी की पर सनद सम्पूर्ण जाली है तो क्या कर दूँ
बहुत दिन बाद मेरी ऑंख जिससे लड़ गयी यूँ ही
वही इस शहर के गुन्डे की साली है तो क्या कर दूँ
4 comments:
बहुत मजेदार प्रसंग...ग़ज़ल बहुत बढ़िया लगी...धन्यवाद वीरेंद्र जी
सुन्दर।:)
बहुत बढ़िया
सही ठिकाना चुनकर साधी गयी पंक्तियां|आपके शब्दों के धार की दाद देता हूं!!!
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