Tuesday, October 13, 2009

व्यंग्यजल भूत प्रेतों को भज रही दुनिया

व्यंग्जल
भूत प्रेतों को भज रही दुनिया

भूत प्रेतों को भज रही दुनिया
आदमी से उलझ रही दुनिया
हम भी गृह लक्ष्मी को ढोते हैं
हम को उल्लू समझ रही दुनिया
ऐसे आभुषणों के फैशन हैं
बम मिसाइल से सज़ रही दुनिया
उसकी ज़ुल्फों से होड लेती है
जाने कब से सुलझ रही दुनिया
कोई ज्वालामुखी नहीं फटता
भीतर भीतर से बुझ रही दुनिया

2 comments:

हरकीरत ' हीर' said...

भूत प्रेतों को भज रही दुनिया
आदमी से उलझ रही दुनिया

वाह.....!!

व्यंग लिखना भी एक कला है ...सब के बस की बात नहीं ये .....!!

अविनाश वाचस्पति said...

उल्‍लू समझना भी एक कला
उल्‍लुओं को भी नहीं समझती दुनिया।

चाहिए लक्ष्‍मी जिसको घर में
उल्‍लू से प्रीत बढ़ाइये सुबहो शाम।