Monday, November 2, 2009

व्यंग्यजल --अब तो बाहर है अपने बूते से

अब तो बाहर है अपने बूते से
बात होने लगी है जूते से
घूमते फिर रहे हैं आवारा
साँड़ जो बँध रहे थे खूँटे से
एकता की दुहाई के दाता
खुद नजर आ रहे हैं टूटे से
ये मदारी भी खूब हैं यारो
पूछते कुछ नहीं जमूरे से
कितने बारह बरस हुये प्यारे
घूरे अब भी लगे हैं घूरे से

2 comments:

Udan Tashtari said...

बहुत सटीक!

संजय भास्‍कर said...

बहुत ही भावपूर्ण निशब्द कर देने वाली रचना . गहरे भाव.